आज हम आपको Maharana Pratap Sword Weight – महाराणा प्रताप सिंह के बारे में बताने जा रहे हैं. कृपया पूर्ण जानकारी के लिए इस ब्लॉग को अवश्य पढ़ें. और अन्य जानकारी के लिए नव जगत के साथ बने रहे.
महाराणा प्रताप का जन्म सिसोदिया राजवंश के परिवार में 9 मई 1540 ईस्वी में हुआ था. महाराणा प्रताप के पिता का नाम महाराणा उदयसिंह एवं उनकी माता का नाम रानी जीवत कँवर था. साथ ही हम आपको बता दें कि रानी जीवत कँवर का नाम जैवन्ताबाई भी बताया गया है. जीवत कँवर पाली के सोनगरा राजपूत अखैराज की पुत्री थीं. और प्रताप का बचपन का नाम ‘कीका’ था. मेवाड़ के राणा उदयसिंह द्वितीय की 33 संतानें थीं. उनमें से सबसे बड़े महाराणा प्रताप सिंह थे. और यही कारण था कि स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण उनकी विशेषता थी. प्रताप बचपन से ही ढीठ तथा बहादुर थे. इसीलिए सब जानते थे, कि यह बड़े होकर एक महापराक्रमी पुरुष बनेंगे सर्व साधारण शिक्षा लेने से खेलकूद एवं हथियार बनाने की कला सीखने में उनकी विशेष रुचि थी.
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक (Maharana Pratap Ka Rajyabhishek)
महाराणा उदयसिंह ने अपनी मृत्यु के पहले ही अपनी सबसे छोटी पत्नी के बेटे जगमल को मेवाड़ का राजा घोषित कर दिया, जबकि महाराणा प्रताप सिंह जगमल से बड़े थे, महाराणा प्रताप इतने धैर्यशील थे, कि अपने छोटे भाई के लिए अपना अधिकार छोड़ने के लिए तैयार थे, किंतु राज्यसभा के सरदार राजा के इस निर्णय से सहमत नहीं थे, अत: सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि जगमल को सिंहासन का त्याग करना ही पड़ेगा. तब महाराणा प्रताप ने सभी राज्यसभा के सरदारों तथा लोगों की इच्छा को मानते हुए मेवाड़ की जनता का नेतृत्व करने का दायित्व स्वीकार कर लिया, और बप्पा रावल के कुल की अक्षुण्ण कीर्ति का उज्ज्वल पताका, राजपूतों की आन एवं शौर्य के पुण्य प्रतीक, राणा साँगा का पावन पौत्र महाराणा प्रताप को (विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल 15) 1 मार्च सन 1573 ई. को सिंहासनासीन करके, मेवाड़ का दायित्व सौंपा गया.
महाराणा प्रताप की तलवार का वजन कितना था? (maharana pratap ki talwar ka kitna vajan tha)
हम आपको बता दें कि महाराणा प्रताप दो धारी तलवार रखते थे, वह जब भी किसी युद्ध में जाते थे. अपने साथ 2 तलवारें लेकर जाते थे, जिन तलवारों नाम खंडा था, और उनका वजन लगभग 25 किलो था. ऐसा माना जाता है, कि महाराणा प्रताप दो तलवार इसलिए लेकर जाते थे, क्योंकि अगर उनके सामने कोई निहत्था शत्रु है, तो वह एक तलवार उसको दे देते थे, जिससे युद्ध बराबरी में हो. और हम आपको बता दें, कि वर्तमान समय में वह दोनों तलवारे राजस्थान के उदयपुर में महाराणा प्रताप संग्रहालय में रखी गई हैं.
महाराणा प्रताप के भाले और छाती के कवच का वजन कितना था? (maharana pratap ke bhale aur chati ke kavach ka vajan kitna tha)
हम आपको बता दें कि महाराणा प्रताप का भाला 80 किलो का था, और छाती के कवच का भार 71 किलो था. ऐसा माना जाता है, कि महाराणा प्रताप युद्ध में अपने साथ 110 किलो वजन लेकर जाते थे, तथा महाराणा प्रताप की ऊंचाई 7 फीट 5 इंच थी. इसके अलावा एक महान योद्धा में जो शारीरिक योग्यताएं होती है, वह योग्यताओं से महाराणा प्रताप परिपूर्ण थे.
महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का शौर्य (maharana pratap ke ghode chatak ka saury)
चेतक महाराणा प्रताप के घोड़े का नाम था, यह एक पराक्रमी घोड़ा था, जिसने 318 किलो वजन को उठाकर सबसे तेज दौड़ लगाने के साथ-साथ सबसे ऊंची छलांग भी लगाई. ऐसा माना जाता है, कि एक अरबी व्यापारी तीन घोड़े लेकर महाराणा प्रताप के महल में आया, उन तीनों घोड़ों के नाम चेतक, त्राटक और अटक थे. राणा ने उन तीनों घोड़ो का परिक्षण किया जिसमे अटक मारा गया, और सिर्फ दो घोड़े बचे जिसमे चेतक ज्यादा बुद्धिमान और फुर्तीला था. और यही कारण था कि महाराणा प्रताप ने चेतक को रख लिया और त्राटक को अपने छोटे भाई शक्तिसिंह को दे दिया.
हल्दीघाटी युद्ध में चेतक का पराक्रम (haldighati yuddh me chetak ka prakram)
ऐसा माना जाता है, कि हल्दीघाटी के युद्ध में बिना किसी सैनिक के महाराणा प्रताप अपने पराक्रमी घोड़े चेतक में सवार होकर पहाड़ की ओर चल पडे. महाराणा प्रताप को अकेला देखकर मुगल सैनिक भी उनके पीछे लग गए, परंतु चेतक ने अपना पराक्रम दिखाया और रास्ते में एक 9 फीट के बहते हुए नाले से 110 किलो का वजन लेकर छलांग लगा दी, जिसे मुगल सैनिक पार नहीं कर पाए. जिससे महाराणा प्रताप की जान बच गई. हम आपको बता दें, कि चेतक द्वारा लगायी गयी यह छलांग इतिहास में अमर हो गयी, इस छलांग को विश्व इतिहास में नायब माना जाता है.
चेतक ने नाला तो पार कर लिया, परंतु इतनी लंबी छलांग लगाने के बाद चेतक की गति धीरे-धीरे कम होती जा रही थी, परंतु चेतक नहीं रुका क्योंकि पीछे उसे मुगल घोड़ों के दौड़ने की आवाज सुनाई दे रही थी, उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा में आवाज़ सुनाई पड़ी, ‘नीला घोड़ा रा असवार’ प्रताप ने पीछे पलटकर देखा तो उन्हें एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह उनका सगा भाई शक्ति सिंह था. प्रताप के साथ व्यक्तिगत मतभेद ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बनने पर मजबूर कर दिया था, और हम आपको बता दें कि, युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से ही लड़ता था, परंतु जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ जाते हुए देखा, तो वह चुपचाप उस घोड़े का पीछा करने लगा, और ऐसा माना जाता है. कि अंत में जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले थे. परंतु महाराणा प्रताप को उनके सगे भाई तो मिल गए लेकिन उन्हें अपने सबसे प्रिय घोड़े चेतक का साथ छूट गया, क्योंकि युद्ध में घायल होने के बाद 26 फीट की छलांग लगाने पर महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की मृत्यु हो गई.
हल्दीघाटी का युद्ध (haldighati ka yuddh)
हम आपको बता दें कि हल्दीघाटी का युद्ध मुग़ल बादशाह अकबर और हिंदू महाराजा महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को हुआ था, अकबर और महाराणा प्रताप के बीच यह युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ था. ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और ना ही महाराणा प्रताप जी सके. क्योंकि मुगल सैनिकों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति अधिक थी, उन्होंने आखिरी समय तक अकबर से सन्धि की बात स्वीकार नहीं किए, और मान-सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करते हुए लड़ाइयाँ लड़ते रहे.
हम आपको बता दें कि ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है, इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति ने छापामार लड़ाइयां की थी,क्योंकि अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए 18 जून, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को युद्ध करने के उद्देश्य से भेज दिया था, दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के मध्य भयंकर युद्ध हुआ, इस भयंकर युद्ध में महाराणा प्रताप बड़े ही पराक्रम के साथ लड़े परंतु सैन्य शक्ति कम होने के कारण वह पराजित हो गए, लड़ाई के दौरान अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया, तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये, परंतु इसके पश्चात भी महाराणा प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की. और यही कारण हुआ कि युद्ध अत्यंत भयानक रूप ले लिया, सलीम पर महाराणा प्रताप को आक्रमण करते हुए देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उनकी ओर बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे. प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था. इसलिए मुग़ल सैनिक उन्हीं को निशाना बनाकर घात कर रहे थे, राजपूत सैनिक भी प्रताप को बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर मुगल सैनिकों के विरुद्ध संघर्ष करने लगे, परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसते जा रहे थे. ऐसी भयंकर स्थिति को देखकर सरदार ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया. झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगे. और यही कारण हुआ कि मुग़ल सैनिक उन्हें ही प्रताप समझकर उन पर आक्रमण करने लगे, जिससे महाराणा प्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया. उनका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था, ऐसे में महाराणा प्रताप युद्ध भूमि से जाते-जाते मन्नाजी को मरते हुए देखा राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम असफल रहा.
महाराणा प्रताप की मृत्यु कब और कहां हुई थी? (maharana pratap ki mrityu kab aur kahan hui thi)
ऐसा माना जाता है कि मुगल बादशाह अकबर कभी भी महाराणा प्रताप को अपने अधीन नहीं कर पाए थे, महाराणा प्रताप की मृत्यु 29 जनवरी, 1597 को 57 वर्ष की आयु मे अपनी राजधानी चावंड मे धनुष की डोर खींचते समय आँत में चोट लगने के कारण हुई थी, ऐसा कहा जाता है, कि अकबर महाराणा प्रताप की मृत्यु के पश्चात बहुत दुखी हुआ था क्योंकि महाराणा प्रताप पहले ऐसे हिंदू राजा थे, जिन्हें अकबर कभी अपने अधीन नहीं कर पाया.
आशा करते हैं कि यह ब्लॉग आपको Maharana Pratap Singh – महाराणा प्रताप सिंह की पूर्ण जानकारी प्रदान करने में समर्थ रहा. अन्य महत्वपूर्ण और रोचक जानकारी के लिए हमारे अन्य ब्लॉग को अवश्य पढ़ें.
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